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उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने केंद्र, राज्य से यूसीसी पर छह हफ्ते में जवाब मांगा

उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने प्रदेश में पिछले माह लागू की गई समान नागरिक संहिता (यूसीसी) में विवाह और 'लिव-इन' से संबंधित प्रावधानों को चुनौती देने वाली दो याचिकाओं पर केंद्र और राज्य सरकार से बुधवार को अपना जवाब दाखिल करने को कहा है। उच्च न्यायालय में जनहित याचिका के रूप में दायर एक याचिका में दलील दी गई है कि यूसीसी 'लिव-इन' संबंधों को वैध बनाता है और इसे विवाह के बराबर दर्जा देता है, जबकि एक अन्य रिट याचिका में कहा गया है कि मुसलमानों के लिए इसका पालन करना मुश्किल है क्योंकि विवाह, तलाक और विरासत से संबंधित इसके प्रावधान कुरान के सिद्धांतों के खिलाफ हैं।

याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जी नरेंदर और न्यायमूर्ति आशीष नैथानी की खंडपीठ ने केंद्र और राज्य सरकारों को इस संबंध में अपना जवाब दाखिल करने के लिए छह हफ्ते का समय दिया है। भारत के सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता केंद्र और राज्य सरकार की ओर से वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए अदालत में पेश हुए।

जनहित याचिका दायर करने वाले अधिवक्ता सुरेश सिंह नेगी ने कहा कि यूसीसी 'लिव-इन' संबंधों को वैध दर्जा देगा असंवैधानिक है। यूसीसी के तहत प्रक्रिया 'लिव-इन' संबंधों को वैधता देगी और उसे विवाह के बराबर मान्यता देगी। जहां विवाह और तलाक एक लंबी प्रक्रिया है वहीं 'लिव-इन' संबंधों में प्रवेश करने और उसे समाप्त करने के लिए केवल एक आवेदन देने की जरूरत है।

याचिकाकर्ता ने कहा कि 'लिव-इन' संबंधों में प्रवेश करने के 30 दिनों के भीतर उसका पंजीकरण करना अनिवार्य है और ऐसा न होने की स्थिति में तीन माह की कैद या दस हजार रूपये का जुर्माना भरना पड़ सकता है। हालांकि, इस संबंध को खत्म करने के लिए रजिस्ट्रार के सामने 15 दिन में आवेदन देना जरूरी है। यूसीसी के तहत 'लिव-इन' संबंधों में प्रवेश करने की उम्र 18 साल है और इसमें जोड़े को बच्चे को गोद लेने का अधिकार है जबकि इस संबंध से जन्में बच्चे को भी वैध बच्चा माना जाएगा।

याचिका में नेगी ने कहा कि दूसरी ओर विवाह संबंध में प्रवेश करने के लिए लड़की की न्यूनतम आयु 18 वर्ष और लड़के की न्यूनतम आयु 21 वर्ष रखी गई है। इससे 'लिव-इन' संबंध और विवाह को नियंत्रित करने वाले दो कानूनों के बीच टकराव होता है। अल्मासुद्दीन सिद्दीकी की ओर से दायर रिट याचिका में कहा गया है कि मुस्लिम धर्म में आस्था रखने वाले याचिकाकर्ता को यूसीसी के प्रावधानों का पालन करने में परेशानी हो रही है क्योंकि विवाह, तलाक और उत्तराधिकार को लेकर इसके प्रावधान कुरान में दिए गए प्रावधानों से अलग हैं। याचिका में ये भी कहा गया है कि यूसीसी भारत के संविधान के अनुच्छेद 25 और अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है क्योंकि यह अनुसूचित जनजातियों पर लागू नहीं होता है।

अनुच्छेद 25 धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार देता है और अनुच्छेद 14 कानून के समक्ष बराबरी की बात करता है। याचिका में लिव-इन संबंधों के अनिवार्य पंजीकरण को भी चुनौती दी गई है। उत्तराखंड में 27 जनवरी को यूसीसी लागू किया गया था और ऐसा करने वाला वो स्वतंत्र भारत का पहला प्रदेश है। भले ही यूसीसी को लागू कर दिया गया है लेकिन विभिन्न वर्गों में इस बात को लेकर संदेह बना हुआ है कि लोग इस पर कैसे प्रतिक्रिया देते हैं और इसे जमीन पर कैसे लागू किया जाता है।इसके विभिन्न प्रावधानों खासकर लिव-इन संबंधों के अनिवार्य पंजीकरण को लेकर भी लोगों को ऐतराज है। कुछ कानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि इससे लोगों के निजता के अधिकार का उल्लंघन होगा।