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तीन राज्यों की पराजय में तेलंगाना का मरहम

तेलंगाना में बीआरएस यानी भारत राष्ट्र समिति को जोरदार झटका लगा है। बीआरएस ने अपनी दस साल पुरानी सरकार गंवाई हैं। कांग्रेस ने 64 सीटों केसाथ राज्य में शानदार सफलता प्राप्त की है। इसे 39 प्रतिशत मत मिले हैं। 2018 के चुनाव में बीआरएस ने राज्य में 67 सीटें हासिल की थी। लेकिन इस बार उसका सूपड़ा साफ हुआ है। यहां तक कि मुख्यमंत्री केसीआर अपनी कामारेड्डी विधानसभा सीट को नहीं बचा सके हैं। तमाम विपरीत अटकलों के बावजूद औबेसी की पार्टी एआईएमआईएम ने परंपरागत सात सीटों को बचाकर रखा है। सियासी हलकों में यह बात तो कही जा रही थी कि बीआरएस के प्रति लोगों में नाराजगी है। तेलंगाना राज्य के लिए लड़ने वाले केसीआर का तिलिस्म टूट रहा है। लेकिन फिर भी माना जा रहा था कि अपने संगठन क्षमता और कांग्रेस बीजेपी का आधार सिमटे होने से वह अपनी सरकार बचा लेंगे। लेकिन राज्य की जनता की नाराजगी और कुछ मुस्लिम क्रिश्चयन वोटों के धुर्वीकरण ने बीआरएस के गढ को ढहा दिया। बीआरएस ने 2018 के चुनाव में शानदार सफलता हासिल की थी। पार्टी ने राज्य की 90 सीटों में 67 सीटें हासिल की थी। लेकिन इस बार वह 39 सीटों पर सिमट गई। वहीं एआईएमआईएम ने अपनी परंपरागत सात सीटों को बचाकर रखा है। अजब यह भी है कि मुख्यमंत्री केसीआर अपनी कामारेडी सीट पर भी चुनाव हार गए।
 
बीआरएस दस बर्ष बाद सत्ता से बाहर हुआ है। तेलंगाना के निर्माण में केसीआर का बहुत बड़ा योगदान है। उन्होंने अलग तेलंगाना के मुद्दे को पुनर्जीवित किया था। यहां तक कि टी रामाराव और फिर चंद्रबाबू नायडू के समय केविनेट मंत्री रहते हुए भी वह पृथक तेलंगाना की मांग को उठाते रहे। इसका ही असर था कि राज्य में पहली बार चुनाव में टीआरएस को शानदार सफलता मिली। पांच साल बाद 2018 में बीआरएस ने और बड़ी सफलता हासिल की। कांग्रेस केवल 17 सीटों पर सिमट गई थी। एआईएमआईएम को सात और बीजेपी एक सीट हासिल हुई थी। लेकिन इस दौर में बीआरएस ने जहां अपने संगठन का विस्तार किया पार्टी मजबूत होती चली गई वही भ्रष्टाचार भी बढता गया। साथ ही केसीआर ने परिवारवाद को जिस तरह बढावा दिया उससे लोगों में आक्रोश बढ गया था।

राज्य में पेपर लीक का मामला उछला। मंत्री विधायकों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे। भ्रष्टचार के आरोप केसीआर परिवार पर सबसे ज्यादा लगे। लोग विकल्प की तलाश में थे।केसीआर ने अपने बेटे केटीआर और बेटी कविता को बहुत मह्व दिया। कहा तो यह भी जाता था कि सत्ता केटीआर ही चला रहे हैं। इसका असर पार्टी तक में था। लेकिन केसीआर के प्रभामंडल के सामने कोई खुल कर अपनी बात नहीं कह सका। केसीआर लोगों के आक्रोश को समझ रहे थे लेकिन उन्हं लगता था कि कांग्रेस और बीजेपी अपने संगठन के आधार पर उनकी सराकर नहीं डिगा पाएंगे।
 
केंसीआर रेवड़ी कल्चर में किसी से पीछे नहीं बल्कि सबसे आगे थे। सियासत में रेवड़ी कल्चर को अगर किसी ने सबसे बढावा दिया तो केसीआर का नाम सबसे ऊपर है। लेकिन यह सब काम नहीं आया। केसीआर राज्य में किस मनोबल के साथ थे उसे इस बात से समझा जा सकता है कि वह विपक्ष का नेतृत्व करने का सपना भी पाले थे। साथ ही उन्होंने अपनी पार्टी का नाम भी टीआरएस से बीआरएस कर दिया था। लेकिन जितना पार्टी अपने को मजबूत समझती रही। उतना ही लोगों में असंतोष पनपा हुआ था। इसलिए जब बीजेपी गेम में थोड़ा ह्ल्की हुई तो कांग्रेस ने तेजी से पहल की । बेहतर रणनीति के साथ मुद्दों को उठाकर कांग्रेस ने यह बाजी जीत ली। कांग्रेस के लिए राहुल गांधी ने काफी मेहनत की। उनकी भारत जोड़ों यात्रा इस क्षेत्र से भी गुजरी । साथ ही उन्होंने राज्य में अलग से यात्रा की। चुनाव प्रचार में राहुल ने कई रैलियां की। यही नहीं कांग्रेस ने कर्नाटक राज्य के कार्यकर्ताओं को भी यहां प्रचार में लगाया। इसके अलावा कांग्रेस की नजर राज्य के मुस्लिम मतदाताओं पर थी। कांग्रेस को आभास हो रहा था कि कर्नाटक की तरह तेलंगाना में भी मुस्लिमों का झुकाव उसकी तरफ रहेगा। मुस्लिम वोटर्स बीसीआर की तरफ रहा है। लेकिन इस बार कांग्रेस ने उसे अपने साथ जोड़ लिया। कांग्रेस ने इस हवा को तूल दी कि बीएसआर और बीजेपी में आपसी समझौता है। साथ ही समय रहते कांग्रेस ने रेवंत रेड्डी को पार्टी का नेतृत्व भी सौंपा। इससे पार्टी संगठन मजबूत होकर उभरा।
 
कांग्रेस के लिए इस जीत के कई मायने हैं। कर्नाटक के बाद तेलंगाना में जीत को कांग्रेस दक्षिण में अपने बढते प्रभाव के तौर पर देख रही है। इन दो राज्यों के अलावा तमिलनाडू में भी वह सत्ता चला रही द्रमुक की सहयोगी है। तेलंगाना में कांग्रेस को 64 सीट मिली और एक सीट पर सहयोगी वामपंथी पार्टी जीती है। कांग्रेस के लिए कांग्रेस नेता रेवंत रेड्डी ने काफी प्रयास किया। चुनाव में अजब यह भी था कि रेवंत रेड्डी स्वयं उस कामारेड्डी की सीट से हारे जहां सीएम केसीआर खड़े थे। केसीआर भी यह चुनाव हारे। यह सीट पर बीजेपी के वैंकटारमना ने जीत कर सबको चौंकाया। हालांकि केसीआर और रेवंत रेड्डी दोनों दूसरी सीटों पर जीत कर विधानसभा पहुंचे हैं। कांग्रेस को ग्रामीण क्षेत्रों का भी समर्थन मिला है। कांग्रेस ने राज्य में अपनी छह गारंटियों वाला लोकलुभावन घोषणापत्र बनाया था। ओवैसी ने सात सीटों के अलावा बाकी जगह बीआरएस को अप्रत्यक्ष समर्थन दिया था। लेकिन यह सब काम नहीं आया।

ग्रामीण क्षेत्रों में कांग्रेस के लिए शानदार माहौल बना। हिंदू बेटियों की शादी एक लाख रुपए और 10 ग्राम सोचना अल्पसंख्याकों की बेटियों की शादी में 1लाख 60 हजार रुपए देने का वादा किया। इससे कांग्रेस के लिए काफी माहौल बना। कांग्रेस चुनावी वादों में केसीआर से मीलों आगे निकल गई। कांग्रेस ने समय रहते यहां भी अपने विवादों को सुलझा लिया था। साथ ही बीआरए के खिलाफ तीखी प्रचार करके कांग्रेस ने उन मतदाताओं को अपने साथ जोड़ लिया जो बीआरएस की कार्यशैली को पसंद नहीं कर रहे थे। कांग्रेस ने जिस तरह राजस्थान छत्तीसगढ और मध्यप्रदेश के चुनाव हारे हैं उसके बाद तेलंगाना की जीत उसके लिए सहारा बनी है। 

दूसरी तरफ बीजेपी शुरु में राज्य को लेकर असमंजस में रही। बीजेपी को लेकर अटकलें लग रही थी कि वह बीआरएस से समझौता करेगी या डीटीपी से। लेकिन बीजेपी ने आखिर में एक जन कल्याण पार्टी से समझौता कर लगभग अकेले चलने की दूरगामी नीति बनाई। बीजेपी को चुनाव में आठ सीटें हासिल हुई हैं। साथ ही बीजेपी ने लगभग 14 प्रतिशत मत हासिल किए हैं। इस लिहाज से देखें तो यह बीजेपी के लिए आगे की सियासत के लिहाज से काफी अच्छा परिणाम है। बीजेपी को लेकर कहा जा रहा है कि अगर बीजेपी ने बैकफुट की नीति न आपनाई होती तो बीजेपी के लिए नतीजे कुछ अलग होते। लेकिन बीजेपी ने राज्य मे अपनी दूरगामी नीतियों के लिए अपने संगठन में फेरबदल किए। इससे बीजेपी एकाएक धीमी पड़ गई। लेकिन फिर भी जो परिणाम आए हैं वो बीजेपी के लिहाज से काफी अहम है। आगे बीजेपी एक बड़ा गैप भरने के लिए तैयार है। खासकर उसकी बीआरएस के बिखरते जनाधार को अपनी झोली में समेटने की है। 

तेलंगाना के इन परिणामों ने कई तरह के संकेत दिए हैं। एक तरफ जहां दक्षिण के राज्यों में कांग्रेस ने अपने आधार को बढाया है। वही इसके भी संकेत है कि आने वाले समय में तेलंगाना में बीजेपी अक बड़ी पार्टी के तौर पर उभरती दिख सकती है। साथ ही जिस तरह तेलंगाना में वंशवाद भष्टाचार की सियासत को मतदाताओं ने नकारा है उसके बाद सियासी पारा बढा तो आगे  तमिलनाडू की राजनीति में भी हलचल होने में देर नहीं लगेगी। इस राज्य ने क्षेत्रीय राजनीति के भी कुछ सवाल खड़े कर दिए हैं। अगर कांग्रेस तेलंगाना में बीआरएस को पराजित कर सकती है तो आरजेडी या सपा के जनाधार पर भी सेंध लगा सकती है। 

 

Written By- वेद विलास उनियाल