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शिव पार्वती के अनंत प्रेम की गाथा

प्रेम की लिखी गई थी वो कहानी.. शमशान के राजा के लिए महल छोड़ कर आई थी एक महारानी!
आज महाशिवरात्रि के इस पावन अवसर पर आप सबको महाशिवरात्रि की ढेरों शुभकामनाएं। 
हमारे हिन्दू धर्म में महाशिवरात्रि के इस पावन पर्व का बड़ा महत्व माना गया है। हर साल फाल्गुन माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को महाशिवरात्रि मनाई जाती है। मान्यता है कि इस दिन पूरे विश्व का पहला प्रेम विवाह संपन्न हुआ था, भगवान शिव का विवाह मां पार्वती से हुआ था। हर साल महाशिवरात्रि का ये पर्व मंदिरों में बड़े धूम धाम से मनाया जाता है। शिव मंदिर को फूल बेल पत्तों से सजाय जाता है। लाखों करोड़ों लोग इस दिन व्रत रखते हैं। कहते है इस दिन व्रत रखने से और शिव गौरी की विधिवत पूजा करने से हमारे सारे दुख दर्द दूर होते है और हमारी सारी मनोकामनाएं भी पूरी होती है। 

धार्मिक कथाओं के अनुसार ये भी कहा जाता है कि इस दिन भगवान शिव शिवलिंग के रूप में प्रकट हुए थे और सबसे पहले उनकी पूजा ब्रह्मा जी और भगवान विष्णु जी ने की थी। वैसे तो इस दिन से जुड़ी काफी लोक कथाएं प्रसिद्ध है। लेकिन आज हम शिव पार्वती के अनंत प्रेम, एक दूसरे के लिए उनके संघर्ष के बारे में बात करेंगे।  

पौराणिक कथाओं के अनुसार माँ पर्तवी ने शिव की अर्द्धागिनी बने रहने के लिए अनेकों जन्म लिए। सबसे पहले माता सती के रूप में मां आई, सती प्रजापति दक्ष की पुत्री थीं। वो  बचपन से ही भगवान शिव की भक्ति में लीन रहती थीं। उन्होंने भगवान शिव को अपने पति के रूप में पाने के लिए सच्चे मन से उनकी आराधना की जिसका फल उन्हें प्राप्त भी हुआ और उन्हें शिव पति के रूप में प्राप्त हुए।  

लेकिन राजा दक्ष भगवान शिव को अपनी बेटी के लिए एक योग्य वर नहीं मानते थे। अपने पिता के विरुद्ध जाकर माता ने भगवान शिव से विवाह किया था। एक दिन राजा दक्ष ने अपने महल में यज्ञ का आयोजन किया जिसमें उन्होंने भगवान शिव और माता पार्वती को आमंत्रित नहीं किया, माता पार्वती को जब यज्ञ के बारे में पता चल तो उन्होंने भगवान शिव से वहां चलने की ज़िद की लेकिन आमंत्रित न होने के कारण भगवान शिव ने वहां जाने से इनकार कर दिया लेकिन अपने फिर भी माता ये कह कर वहां चली गई कि अपने पिता के घर जाने के लिए मुझे किसी आमंत्रण की जरूरत नहीं जहां दक्ष ने भगवान शिव का घोर अपमान किया अपने पति का इस तरह अपमान सुनकर माता सती ने यज्ञ स्थल में ही अपने प्राणों की आहुति दे दी। माता सती ने अपना शरीर का त्याग करते हुए संकल्प लिया कि वो शंकर जी की अर्धांगिनी बनने के लिए फिर से जन्म लेंगी। इसके बाद माता सती ने पर्वतराज हिमालय की पत्नी मेनका के गर्भ में जन्म लिया। पर्वतराज की पुत्री होने के कारण वे पार्वती कहलाईं। भगवान शिव को पति के रूप में प्राप्त करने के लिए माता ने वन में 14 हजार वर्ष तक कठोर तपस्या की, अनेक वर्षों तक कठोर उपवास किया। तपस्या के दौरान भगवान शंकर ने माता की परीक्षा लेनी चाही। शंकर जी ने सप्तऋषियों को पार्वती के पास भेजा जहां उन्होंने माता को समझाया कि शिव जी औघड़, अमंगल वेषधारी और जटाधारी हैं, वे तुम्हारे लिए उपयुक्त वर नहीं हैं। उनके साथ विवाह करके तुम कभी सुखी नहीं रह सकती। साथ ही माता पार्वती से ध्यान छोड़ने के लिए भी कहा। लेकिन माता ने उनकी एक नहीं सुनी वो अपने ध्यान में दृढ़ रहीं। आखिरकार मां पार्वती की दृढ़ता को देखकर सप्तऋषि प्रसन्न हुए और उन्हें सफल मनोरथ होने का आशीर्वाद दिया। और माँ पार्वती को महादेव उनके पति के रूप में प्राप्त हुए। 

मां पार्वती ने तपस्या की तो भगवान शिव ने उनकी प्रतीक्षा की, ज़िद मां पार्वती की थी और भगवान शिव ने उस ज़िद को स्वीकार किया। दूरी, तप, पीड़ा, आंसू, शत्रु कोई  भी इनका प्रेम नहीं मिटा सका और फिर सारा ब्रह्मांड बना शिव पार्वती के मिलन का साक्षी।